‘रात साक्षी है’ डॉ० सूर्यपाल सिंह की कविता पुस्तक है। इसमें सीता के अन्तिम रात की कथा है। इसे छह खंडों में प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रथम खंड प्रस्तुत है।
कथा मौन की ?
रामकथा के विस्तृत फलक हर काल में जनजीवन को आन्दोलित करते रहे हैं। आज भी रामकथा के बिम्ब प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करते हैं ।
प्रस्तुत रचना एक रात की कथा है। वह रात बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रातः की सभा में सीता को दूसरी बार शुचिता की शपथ लेनी है। वे शपथ के लिए प्रकट तो होती हैं पर रघुकुल में लौटती नहीं । पार्थिव जगत को छोड़ जाती हैं वे। क्या यही था इस आयोजन का प्रयोजन? आयोजन के पूर्व की सन्ध्या- महर्षि वाल्मीकि ने विह्वलमन सीता को प्रकट होने के लिए संकेत किया। सीता का मन हाहाकार कर उठा। किन विमर्शो में खो गईं वे ?
क्या राम भी सो सके? हनुमत्, लक्ष्मण, कुश, लव सबकी आँखों में उस रात नींद क्यों नहीं उतरी? घर कैसे अघर में बदल गया? यही इन कविता पंक्तियों की कथा है- यह कथा निशीथ विमर्शो की। अनकहे शब्द के अर्थों की। कथा मौन की।
दिनांक- १४.१.२००६
(डाॅ० सूर्यपाल सिंह)
निकट प्रधान डाकघर
सिविल लाइन्स, गोण्डा
रात साक्षी है
‘रात साक्षी है' काव्य- कथा के केन्द्र में एक रात की अन्तर्कथा है। रात से प्रातः तक के समय को आठ सर्गों में 'मिथकीय पुनर्सृजन' के माध्यम से चित्रित किया गया है। सीता की द्वितीय शुचिता परीक्षण की 'पूर्वरात'।
सीता से सम्बद्ध सभी आत्मीय जन क्या-क्या सोच रहे हैं, उनकी चिंताएँ और विमर्श रामकथा को नए रूप में प्रस्तुत करते हैं। बड़ा कठिन होता है पुराने को नया करना । 'समय' और 'घर' की अवधारणा को समकालीन चिंताओं के केन्द्र में रखना कवि के भूगोल - मुक्त होने का प्रमाण है । 'राम कथा' भी भूगोल - मुक्त है । 'घर' के अघर होने की चिंता सीता के निजी जीवन से निकल कर कैसे समकालीन विश्व की एक बड़ी चिंता में बदल जाती है- 'रात साक्षी है' इसका जीवंत दस्तावेज़ है।
कथा-क्रम के आरोह-अवरोह के साथ छंदोविधान में परिवर्तन पात्रों की मनःस्थितियों को ध्यान में रखकर किया गया है। विषय- य-वस्तु के परिवर्तन की भनक छंद परिवर्तन से नहीं लगाई जा सकती क्योंकि विषयवस्तु और छंद का सामंजस्य अद्भुत है।
निर्णय की एक रात का विस्तार कई युगों को समेटे है । कई विमर्शों को आत्मसात किए है। समय के तीनों रूप वर्तमान, अतीत और भविष्य साकार होकर रात साक्षी है' को काल-काव्य बनाते हैं किन्तु सीता को साथ लेकर ।
दिनांक- १४.१.२००६
( शैलेन्द्र नाथ मिश्र )
अध्यक्ष हिन्दी विभाग,
लाल बहादुर शास्त्री स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गोण्डा
क्रम प्रकरणानुक्रम
1. निशीथ
2. संकेत
3. मंथन
4. जागरण
5. घर के पृष्ठ
6. कौन बैठा है?
7. दीप लौ
8. ईंगुरी दिनकर
निशीथ
नील सर से व्योम के
मुग्ध अल्हड़ जल परी ।
पंख फैला उतरती
उडुप, तम की सहचरी ।
द्यौ निगल, पट पसारे
अलसती ढकती मही ।
छिपी छाया में स्वयं
अहन् का उत्तर वही ।
बिना निशा मानव क्या
संस्कार ले आता ?
बैठ मुँडेरी कागा
संदेशा दे जाता ?
संवेगों की परतें
कितना रंग बदलतीं ?
राग-द्वेष की कलियाँ
किन रंगों में खिलतीं ?
रात न होती, जगमग
क्वाँरी सन्ध्या होती ?
खगमृग बँधे लौटते
गोधूली पग धोती ?
ठनगन करती ऊषा
कलरव सुर को बोते?
चंचल बाल ठुनकते
जाॅंता करुणा ढोते ?
तमस भगाने निशि से
कितने तंत्र लगे हैं ?
ज्ञात न मानव को क्या
तमस निशीथ सगे हैं?
कितने महत् निर्णयों
की साखी हैं रातें ?
किन कर्मों, विश्वासों
की उत्प्रेरक रातें ?
रातें जिज्ञासा सॅंग
सपने बुनकर लातीं ।
थके नीड़ पाँखी को
मीठी नींद सुलातीं ।
करतीं तंत्रों-मंत्रों
से अठखेली रातें ।
ऋषियों, मुनियों के तप
में सहभागी रातें ।
रात निशाचर गाथा
की पहली पोथी है ।
रात प्रकाश बुलाने
में निज को खोती है।
रातों की बाहों में
कितने अर्थ छिपे हैं?
कितने छल-प्रपंच के
गह्वर सतत उगे हैं?
रातों ने कस बाँधी
मर्यादाएँ दिन की ।
रातों ने पकड़ाई,
राहें तन, अन्तस् की ।
वैदेही जीवन में
कितनी रातें आईं।
पर यह रात अबोली
राह बनाते आई ।
उसे पता क्या सीता
की अन्तिम विभावरी?
किसे पता क्या करवट
लेगी व्यथा बावरी?
एक ईंट से भी पड़
जाती नींव महल की ।
एक सिया के डग से
बनती रीति डगर की ।
किस प्ररूप को थपकी
देती रजनी आई ?
उर्वर सीतित धरती
शस्य उगाती आई ।
बीजकोश जन्माता
जिन दानों को उनमें ।
लिखे क्रान्ति के पृष्ठ
परम्परा के घर में ।
है रात व्यथित, कुछ विचलित सी
जन, पशु-पक्षी सभी जगे हैं।
नहीं सो सके बरगद - पीपल
तारों के आँसू उमगे हैं ।
धरा मौन थी ।
नींद न आई स्वयं राम को
चारो प्रहर रहे मथते ही ।
लक्ष्मण गुनते रहे रात भर
हनुमत् रात रहे बैठे ही ।
इला मौन थी।
कुशलव उलझे सुलझाने में
उगी गुत्थियाँ उलझीं सारी ।
मुनिवर बैठे ध्यानमग्न थे
दिखती सीता की छवि न्यारी ।
इरा मौन थी ।
सोया नहीं रातभर कोई
सीता जागीं, परिजन जागे ।
रात विचारों में ही बीती
अलग-अलग निज रचना पागे ।
उरा मौन थी ।
यह रात ज्योति के झरने की,
रजनी यह पाँव सँभलने की,
यह कथा निशीथ विमर्शों की,
अनकहे शब्द के अर्थों की ।
कथा मौन की ।
संकेत
मुनिवर बैठे कुश के आसन
वैदेही की बाट जोहते ।
साँझ झुटपुटा
नीड़ों में खग
बच्चों के मुँह
चोंच डालकर
अन्न चुगाते।
चरते चरते पशु भी
अपने ठीहे लौट चुके हैं
खड़े, बैठ पगुराने के क्षण ।
गहरा हुआ धुँधलका
दीप जले हैं, कांप रही लौ ।
दूर कहीं कोई विरही
तरु तर बैठा बिरहा गाता ।
मुनि का ध्यान बँटा-
विरह-मिलन के दृश्य
कहीं से उग आए हैं
जैसे उगते गेहूँ मामा
महानगर में
झोपड़ पट्टी भरे सुदामा
मूल कथा में प्रक्षिप्तों से ।
मुनि का मंथन
अटक गया है
वैदेही की भावी गति पर ।
राम कथा की सूत्र वही तो
अभी कथा के अंश अधूरे
कुश लव को भी ज्ञात नहीं
राम और उनका क्या नाता ?
यह भी कैसी नियति ?
पुत्र न जाने कौन पिता है ?
मनुज बनाता नीड़ स्वयं ही
पर उसमें क्या रह पाता है?
विघ्न टपकते,
गादुर मुदित, कपोतक बसते
घर का रूप अघर सा होता
घर से क्यों उड़ता है पंछी ?
पशु-पक्षी भी नीड़ बनाते
स्वयं नीड़ में रच-बस जाते
पर मानव विवेक का सहचर
सजग, महत्तर ।
पर अक्षम है
घर को घर रख पाने में भी
कितनी बाधा, कितने संकट ?
किसे पता है
राम कथा की दिशा ?
सब के सब केवल निमित्त हैं ।
प्रश्न कठिन - कुशलव की स्वीकृति
बच्चों ने कितना खोया है-
स्नेह पिता का
राजस पोषण
क्या इससे उन्मीलन में
अन्तर आया है ?
पनप सका कुछ
जीवन धारा में जो इनकी
कहीं बड़ा परिवर्तन कर दे
भिन्न दिशा दे ?
कहीं बावड़ी, तमस उगा दे ?
बीज वृक्ष हैं, पौधे भी
बच्चे मानव पुरखे होते
उनका संभव
किसे पता है ?
भावी गति का भरा पिटारा
अनुमितियों से कहाँ खुला है ?
गहन विषय है
शेष बहुत है पढ़ना उनके
भावी गतिविधि की रेखाएँ ।
वे कच्चे घट
उन्हें पकाना
दिशा बोध की नई ऋचाएँ
गढ़कर लाना।
सरल नहीं है दीप दिखाना
स्वयं जलो फिर उगा सकोगे
ज्योति प्रभा को
जो जलता नित वही
दीप को जला सका है ।
उर्वर माटी जगे बीज को
उगा सकी है।
कठिन परीक्षा के दिन
नारी - नर के द्वन्द्व उभरते
नारी को कंचन सा तपना ।
आचारों की नई ऋचाएँ
नित प्रति बनना ।
मुनिवर आहट पा उठते हैं
देख रहे वैदेही आते-
नयन मुखरित
धवल वसना
स्नेह से भीगी परी
वनचरों की सहचरी
कितनी सरल ?
सौम्य प्रतिमा
शील कलिका
गरल पीकर मौन
अमिय झरते
कितनी तरल ?
कामनाएँ डूबीं
हिमशिला-सी
नाचतीं उँगलियाँ
विचारों संग |
सपनों में खोई
तन्वंगी, सचल
सधे पगों से
आती, अमल ।
आते किया प्रणाम
अधर मुनिवर के खुले -
'बेटी',
विह्वल मन आँखें भर आईं
नयन सिया के नहा गए हैं।
ठहर गया क्षण
'बेटी'
मौन तोड़ते मुनिवर
'अपने तप को दाँव लगाकर
कुशलव को भविष्य देना है
तेरे भी प्रवाद से हटकर
उनको उनका प्राप्य दिलाकर
घर-बाहर तरिका खेना है।
अपने लिए नहीं कुछ चाहो
पर भोले बच्चों के हित में
निरसन करना अपवादों का
वांछित कितना ?"
वाणी का उत्ताप अभंगी
शब्द सिया के अटक गए हैं
मुनि वाणी भी थर थर कांपी-
'तेरी शुचिता का प्रमाण तू
लोक बहुत निर्मम होता है
किन्तु सदय भी ।
जन सम्मुख आने पर
निन्दा स्तुति में बदलेगी ।
साधु साधु ही होना है
'बेटी,
केवल तुझे प्रकट होना है ।
तेरे शब्द स्वयं ही होंगे
शुचिता के उद्घोषक ।
तेरा तप है
मेरा तप भी साथ रहेगा ।
कुशलव की भोली प्रतिमाएँ
प्रश्नों के उत्तर पाएँगी
तेरी थाती कुल धारा में
पा जाएगी अपना आसन ।'
मुनिवाणी निःशब्द हुई है
वैदेही के अधर स्फुरण
शब्द न फूटे ।
'द्वादश शिशिर बिताया तूने
मेरे आश्रम ।
कुसुमकली तू
तेरी आभा से आलोकित वन!
मेरा भी दायित्व प्रथम है
तेरा, कुशलव का संरक्षण
पहुँचाना गन्तव्यों तक ।
समय कहाँ पीछे मुड़ता है ?
प्रश्न विकट है।
तेरा द्वन्द्व मुझे दिखता है
पर बेटी,
उनका प्राप्य उन्हें मिल जाए
कुल संताप न उन्हें सताए
तेरी गतिविधि
तुझे देखता आया हूँ
इसीलिए 'हाँ' कह कर बेटी
उन्हें वचन दे आया हूँ ।
कल प्रातः ही
ऋषियों-मुनियों के संगम में
जन समूह को बना साक्षी
बेटी, तुझे प्रकट होना है ।'
मुनि ने तरल नयन से
वैदेही को पुनः निहारा
व्यथा फूटती
नयन सिया के कसक उठे हैं।
'तू पविता की मूर्ति स्वयं है
निःसृत होती पावनता
तेरे ही चरणों से ।
आश्रम से तेरा भी जाना
सोच, दुखी हो जाता मन
बच्चों के विनोद से बेटी
आश्रम सहज उमग उठता है।
शील, सौख्य, तप जो कुछ पाया
बच्चों को दे सुखी हुआ हूँ ।
शक्ति, ज्ञान, वीणा के स्वर में
उन्हें पगाया, जो दे पाया ।
अब बालक भी
धर्म तत्त्व का अर्थ समझते ।
गहन अन्ध गह्वर में भी वे
अपनी राह बनाते चलते ।
बच्चों ने जो पौध लगाई
बड़े हुए वे, फलधर संकुल
योग ध्यान में, कर्म-मर्म में
सहज निरन्तर पगधर मंजुल ।
यही समय है
उनका सच भी
आज सामने आ जाए ।'
मुनि पीड़ा संक्रमित हो गई
नयन सिया के अहक उठे हैं।
मुनि वाणी का तार न टूटा
भीतर व्यथा सिन्धु लहराता ?
'सभी विकल्पों को देखा है
बेटी,
बच्चों और तुम्हारे
जनमानस, रघुकुल के हित में
तुझे सभी के सम्मुख लाऊँ
पूत धरोहर उन्हें दिखाऊँ
धैर्य, न घर स्मृति छौना है।
बेटी,
तुझे प्रकट होना है ।
राज काज की अपनी सीमा
जन भागे सत्ता सुख पीछे
सत्ता का अपना आकर्षण ।
वही अँधेरे, वही बावड़ी
वही ज्योति की आकांक्षाएँ
जाने क्या हो जाता घर को
ढूह कभी बन ही जाता है ।
परी कथाएँ कहती रहतीं-
घर था
घरवालों की शौर्य कथाएँ
प्रेम किलोलों की गाथाएँ
जन उनको अद्भुत ही कहता ।
पर घर नहीं कहीं रह जाता
बेटी,
घर का धर्म कठिन है
महायज्ञ यह
चन्दनवाड़ी विषधर रहते
घर में ही घर भेदक बसते
घर का मर्म कठिन है
बेटी,
कुशलव को भी घर मिल जाए ।
सहज कामना माँ की होती,
बच्चों को छाया मिल जाए ।
बेटी,
तेरे मुख पर बादल के कुछ
छिटपुट छींटे देख रहा हूँ ।
मन के भीतर उगते लय को
सर्जक मन से तोल रहा हूँ ।
तू मेरी है मानस बेटी
तेरा हित ही मेरा तप है ।'
कहते कहते मुनिवर भीगे
आँखें जलकण से भर आईं
वैदेही भी विकल हो गईं
लोचन उनके भरे-भरे हैं
'बेटी तेरे शील, कर्म पर
कलुष न उगता, कैसे टिकता ?
जन मानस को भी निशिवासर
तेरा विमल पक्ष ही दिखता ।
तेरे तप में मेरा तप भी
एक एक कर ग्यारह होंगे ।
बच्चों के हित, तेरे हित में
जन सम्मुख आना श्रेयस्कर ।'
हल्की सी सिसकी निकली है
मुनि ने आँख उठाकर देखा -
पीड़ा जैसे छलक उठी है।
'बेटी, वचन दिया है मैंने
सोच-विचार तुझे करना है।
तेरे निर्णय के प्रकाश में
प्रातः हमको डग रखना है ।
सुखी रहे तू मेरी बेटी
कभी न सिसके मेरी बेटी
तेरे सुख में मेरा सुख है
चार प्रहर का अभी समय है ।
अपने मन को स्वस्थ बनाओ
स्वयं गुनो फिर मुझे बताओ
अन्दर दर्पण सदा सुलभ है
तेरा सुख ही मेरा सुख है ।'
आज्ञा लेकर सीता लौटीं
अपनी कुटिया में आ बैठीं
मन की आँधी की ध्वनि सुनते
नयनों में उगते हैं बादल
छिपते हैं, उठते हैं बादल ।